Sunday, May 17, 2020

जीवन की रोटी




परम प्रधान परमात्मा परमेश्वर कहते हैं कि जीवन और मृत्यु को मैने तुम्हारे साम्हने रखा है तुम जिसे चुनना चाहो चुनलो फैसला तुम्हारा, हमारे इस अविनाशी जीवन का मूल स्रोत, सृजनहार, परम प्रधान परमात्मा परमेश्वर और उसकी जीवदायी आज्ञाएँ अथवा परमेश्वर की श्रिष्टी, अर्थात नाशवान, निरे भौतिक मनुष्य और उनकी अपनी  सांसारिक परम्पराएं, किसे मानना है किसका भय खाना है, चुनाव आपका।।

क्योंकि पवित्र शास्त्र बाइबिल तो हमें स्पष्ट रीति से चेतावनी देकर कहता है कि-
जो शरीर को घात करते हैं, पर आत्मा को घात नहीं कर सकते, उनसे मत डरना; पर उसी से डरो, जो आत्मा और शरीर दोनों को नरक में नष्‍ट कर सकता है। मत्ती 10:28*
क्योंकि जीविते परमेश्वर के हाथ में पड़ना अति भयानक होता है
इब्रानियों 10:31

अतिप्रिय बन्धुओं परम प्रधान परमात्मा परमेश्वर का धन्यवाद हो इस उत्तम वचन के लिए और उसकी महिमा का गुणानुवाद युगानुयुग तक होता रहे क्योंकि वो भला है और करुणा सदा की है।।।

प्रियजनों अधिकांशतः हमारे जीवन मे अचानक से कुछ ऐसे मोड़ आ जाते हैं जहां हमें तुरंत ही ये निर्णय लेना होता है कि, परमेश्वर या मनुष्य और उसकी परम्पराएं एवं रीति रिवाज
और ऐसे मोड़ प्रत्येक मनुष्यों के जीवन में कई कई बार आते है, मुझे तो कई बार ऐसा लगता है कि मन को जांचने और ह्रदय को परखने वाला परमेश्वर जानबूझ कर इन परिस्थितियों को हमारे जीवनों में आने देता है ताकि हम खरे उतरें ।।
परंतु वहीं दूसरी ओर अधिकांशतः मनुष्य यहीं पर चूक कर जाता है, क्योंकि उसकी अपनी सोच के मुताबिक, जो कि उसकी अपनी भावनाओं पर केंद्रित विचारधाराओं से ओतप्रोत होती हैं, (क्योंकि मनुष्य एक भावनात्मक प्राणी होता है) सो अपनी इन्हीं भावनाओं से भरी सोच और मानसिकता और मान्यताओं के मुताबिक मनुष्य यह  मान लेता है कि हमारा परिवार, खानदान, समाज जो 24 घंटे हमारे साथ रहता है जिनके लिए हम जी रहे हैं उनकी पहिले सुनना जरूरी है, सुख चैन से जीने के लिए (जबकि सच्चा सुख और चैन तो केवल परमेश्वर की ओर से मिलता है और वो ही उसमें चिर स्थिरता प्रदान करता है)।।। विडंबना है ये या कुछ और कि मनुष्य अपने वास्तविक सुखों के मूल श्रोत को ही नहीं जानता और पहिचानता हैं अर्थात उसका ज्ञान ही नहीं रखता कहूँ तो अतिशयोक्ति ना होगी, क्योंकि वो इनकी भौतिक आँखों से नजर नहीं आता इसीलिए तो परमेश्वर स्वयं कहते हैं कि -                 
मेरे ज्ञान के न होने से मेरी प्रजा नाश हो गई; तू ने मेरे ज्ञान को तुच्छ जाना है, इसलिये मैं तुझे अपना याजक रहने के अयोग्य ठहराऊंगा। और इसलिये कि तू ने अपने परमेश्वर की व्यवस्था को तज दिया है, मैं भी तेरे लड़के-बालों को छोड़ दूंगा।
(होशे 4:6)

अति स्पष्ट है कि जो परमेश्वर का ज्ञान रखता है वो मनुष्यों कि परम्पराओं, तीज त्योहारों और तत्व ज्ञान से परे परमेश्वर कि व्यवस्था उसके नियम कानूनों से प्रेम करेगा lll
परन्तु यहाँ तो मनुष्यों की सोच बिलकुल उल्टी दिखती है वे सोचते हैं क्योंकि परमेश्वर तो बहुत दूर स्वर्ग में रहते हैं उन्हें तो हम कभी भी मना लेंगे जिनके बीच में हमें रहना है उन्हें खुश रखना जरूरी है, परन्तु स्मरण रखें कि वो तो सर्वव्याप्त है, हर पल, हर समय हर कहीं अर्थात तुम्हारे सबसे करीब, वरन जिसने उसे सम्पूर्ण आत्मा से आत्मसात किया है उनके तो अंदर भी बसता है, बस जरूरत है तो एक निश्छल, निष्कपट ,सीधे ,सच्चे और सरल, ह्रदय की, जो उसे हर एक पल अपने भीत में  अनुभूति अर्थात महसूसने पाए, क्योंकि वो तो परम पवित्र परम आत्मा है वो पाप के साथ वास नहीं करता क्योंकि पाप से तो उसे घ्रणा है, परंतु हम पापियों से अथाह सागर से भी गहरा प्रेम है उसे और जहां सिर्फ प्रेम ही प्रेम है वहां वो रहता है, निःसंदेह उसकी पवित्र उपस्थिति वहीं होती है क्योंकि वह स्वयं सर्व सिद्ध अनंत कलिक प्रेम है।।।
अतिप्रिय बन्धुओं क्योंकि हम उसे जानते नहीं इसलिए उसे मानते नहीं, मानते भी हैं तो अज्ञानतावश, भावनात्मक तौर से कि वो तो कण कण में है इसलिए सबमें वो व्याप्त है कहीं भी किसी को भी पूज लो वो ही मिलेगा, यह बात तो उनके लिए जिन्होंने उसे पा लिया है अति मूर्खतापूर्ण एवं हास्यापद है, क्योंकि
 उसकी अपनी श्रष्टी में हम उसकी कलाकृति और अद्भुद ज्ञान का समावेश तो देख सकते हैं परन्तु उसके स्वरूप को नहीं क्योंकि वो अपनी ही सृष्टि से सर्वथा भिन्न है और उसका अस्तित्व भी हम सबसे भिन्न है वो सर्व व्यापी तो है परंतु अशुद्ध अर्थात पाप अर्थात किसी भी प्रकार के बंधनों से मुक्त है इसीलिए वो सबमें नही है परन्तु सब जगह वो मौजूद है अर्थात सर्वव्याप्त है, क्योंकि वो तो अद्भुद है अनोखा और सर्वश्रेष्ठ है सर्वसिद्ध, निष्पाप निष्कलंक और निर्दोष है वो, उसके लिए सब कुछ संभव है खुद की बनाई हुई समय सीमाओं से परे उन्मुक्त सारे समयों का वो सबका स्वामी है, वो तो अपनी ही मन मर्जी का मालिक हम सब उसकी श्रिष्टि मात्र हैं, सचमुच हम तो निमित्त मात्र हैं ।।
हमें उसे समझने के लिए अनुग्रह और समझ भी वो ही देता है वह भी पवित्रात्मा के दान स्वरूप, इसीलिए तो इस आत्मा के बारे में परम प्रधान परमात्मा परमेश्वर का सनातन सत्य और जीवंत वचन अति स्पष्ट रीति से उद्घोषणा करते हुए कहता है कि -
यहोवा की आत्मा, बुद्धि और समझ की आत्मा, युक्ति और पराक्रम की आत्मा, और ज्ञान और यहोवा के भय की आत्मा उस पर ठहरी रहेगी।
(यशायाह 11:2)
 अर्थात जिस किसी पर यह आत्मा ठहरेगी सो ही उसे अनुभूति करने पाता है जान पाता है, अर्थात उस परम धन्य परमेश्वर को महसूसने के लिए उसका आत्मा (पवित्रात्मा)
जो हममें तभी वास करते हैं जब हम उसी एक के अनुग्रह से अपने पाप स्वभाव से मन फिराकर प्रभु येशुआ जो मसीह कहलाया के सनातन सत्य और सिद्ध नाम से जल और आत्मा से नये जन्म की परालौकिक परम अनुभूति को प्राप्त कर लें।।।।
अफसोस होता है कि, अज्ञानता वश मनुष्य अपनी निराधार सांसारिक शारीरिक भावनाओं के चलते भारी भूल में पड़ जाता है, कई बार और मनुष्यों को खुश करने के चक्कर में परमेश्वर के अतिभयंकर कोप का भागी हो जाता है।।
देखिए हमें सबसे पहिले तो ये जानना होगा कि ये मानव समाज और उसकी परम्पराएं यम नियम, कर्म काण्ड, विधिविधान, साँख्य सब कुछ मनुष्यों के सीमित मष्तिष्क और उनकी अपनी सीमित बुद्धि और ज्ञान की वे उपज मात्र होती हैं जिनके द्वारा मनुष्य स्वर्ग के दरवाजों को खोलने की बात तो बहुत दूर उन्हें खटखटा भी नही सकता है, वरन इन परम्पराओं के द्वारा स्वर्ग के दरवाजों को तो वो छू भी नही सकता है,
तो इन परम्पराओं मान्यताओं भावनाओं से वो परमेश्वर, जो सबमें सब कुछ कर सकते है, उन्हें कैसे प्रसन्न कर सकता है???
क्योंकि मनुष्यों की बुद्धिमानी भी परमेश्वर के सम्मुख मूर्खता ठहरती है ।।
ऐसे में भलाई तो सिर्फ इसी में है कि निरंतर प्रयास करें कि किसी भी तरह से हम केवल अपने सृजनहार परमेश्वर को खुश कर सकें, चाहे इसके लिए हमें असंख्यों समाज और उसकी इन बेतुकी, रीति रिवाजों और  परम्पराओं का त्याग ही क्यों न करना पड़े।।।
परंतु विडंबना ही कहलो या कुछ औऱ कि प्रत्येक मनुष्यों की उनकी अपनी उल्टी खोपड़ी में ठीक उल्टी ही सोच उत्पन्न होती है, इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे कि उदाहरण के लिए,
उस परम पवित्र परमात्मा परमेश्वर से अपने निज संबंधों को सही तरीके से और विधिवत रूप से स्थापित नही कर पाना, वह भी अपने जन्म स्वभाव रूपी पाप के चलते,
और इसीलिए छटपटाहट में वे खुद अपनी ही बुद्धि से पाप स्वभाव से मुक्ति का साधन या विधि ढूंढ लेते हैं, और असफल होने पर इसके प्रति उदासीन होकर, परमेश्वर से दूरी बना लेते हैं, और फिर मानव मात्र से अथवा अपने समाज जैसे मनुष्यकृत व्यवस्था से चिपक जाते हैं एक गोंच कि तरह क्योंकि उसी से उनका भरण पोषण होता है सो अपने समाज पर परमेश्वर से भी ज्यादा निर्भर हो जाते हैं।।
क्योंकि मनुष्य तो एक सामाजिक प्राणी होता है जो सिर्फ अपने स्वार्थ और अपनी निजी भावनाओं की संतुष्टि के लिए ही तो जीता है सो ही वो ऐसा करता है ऐसा कहना अतिश्योक्ति ना होगी।।
अगर उसे किसी वस्तु की आवश्यकता ही नहीं होती तो अपने में ही मस्त रह लेता है मनुष्य।।
 अधिकांशतः मनुष्य स्वभाववश परमेश्वर से भी अपने इसी स्वार्थ के लिए अर्थात आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जुड़ता है, क्योंकि वो  इतना तो जानता है कि ,,
जो मनुष्यों से भी नहीं हो सकता वो परमेश्वर से हो सकता है
तो कुल मिलाकर छोटी मोटी आवश्यकताओं के लिए समाज चाहिए बड़ी बड़ी आवश्यकताओं के लिए परमेश्वर, कुल मिलाकर स्वार्थ स्वार्थ और स्वार्थ, स्वार्थ के बिना सब कुछ अधूरा है, क्योंकि स्वार्थ से ही उसका जीवन चलता है इनके लिए परोपकार तो फालतू के लोगों का काम है अर्थात बुद्धिहीन मुट्ठी भर साधू संतों का जिन्हें जीना नहीं आता क्योंकि मनुष्य और उसके जीवन के लिए स्वार्थ ही इनका कुल देवता है जो इनके ऊपर चढ़ने की सीढ़ी होती है, इन स्वार्थियों के लिए उदारता तो हर दूसरे इंसान में होना ही चाहिए ताकि इन्हे सब कुछ मिलता रहे परन्तु खुद इनमें तो केवल स्वार्थ ही जिसके चलते वो सब कुछ पा सकें।।।
प्रिय जनों यही हर उस मनुष्य की सोच होती है जो अपने सृजनहार को नहीं जानता lll
परंतु स्मरण रहे परमेश्वर ने मनुष्य को सृजते वक्त ऐसा सृजा नहीं था परन्तु कालांतर में पाप स्वभाव में फंसकर ही मनुष्य ऐसा हो गया है क्योंकि पवित्र शास्त्र बाइबल भी हमें यही सिखाता है।।।
मनुष्य अपने इन निजी स्वार्थों के चक्कर में ये भूल जाता है कि, उसका इस जगत में आने का मकसद, इस बहुमूल्य जीवन को पाने का मूल उद्देश्य, सिर्फ और सिर्फ अपने इस पाप स्वभाव से मुक्ति पाना, उद्धार पाना है।।।
 अर्थात वो ये भूल जाता है कि, हमने जो ये जीवन पाया है, वो किसी और की अमानत है, इसे उसी एक की सिद्ध इच्छा के अनुरूप जीकर उसे सौंप देना ही हमारा परम कर्तव्य और एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए ।।।
इस एक मात्र परम उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए ही, हम इस जगत में भेजे गए हैं ऐसा कहना अतिश्योक्ति ना होगी।।
जैसा कि भगवत गीता में लिखा है कि,
ईह लोकं मुक्ति द्वारं
अर्थात यही लोक मुक्ति का द्वार है अर्थात इस जीवन को व्यर्थगवां देने के पश्चात अनन्त काल तक नरक की आग में सड़ना ही बाकी रह जाता है अर्थात अनंन्त म्रत्यु को प्राप्त करना जीवन की सारी उम्मीदें खत्म , इसी एक बात की स्पष्ट उदघोषणा अनेको स्थानों में हम पवित्रशास्त्र बाइबिल में पाते हैं जैसे कि प्रभु येशू मसीह कहते हैं जब तक (पैदा होने के बाद इसी जीवन में)मनुष्य नए सिरे से न जन्मे (अर्थात जल और आत्मा से न जन्मे )स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता ।।।
(यूहन्ना 3:1-10 ध्यान पूर्वक पढ़ें)lll
इसीलिए अति प्रिय बन्धुओं इस जीवन के पश्चात स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना ही मनुष्य का मुख्य लक्छ्य होना चाहिए ,जिसके लिए सर्वलोकाधिपति परम प्रधान पमात्मा परमेश्वर को प्रसन्न करना उसकी आज्ञाओं को मानना उसके अनुग्रह को प्राप्त करने हेतु  उसी के अनुरूप जीवन निर्वाह करना एक मनुष्य की प्राथमिकता होनी चाहिए, क्योंकि इन मनुष्यकृत परम्पराओं एवं समाजों में से कोई भी आपको स्वर्ग की ओर एक कदम भी चलाने में असमर्थ होते हैं ।।।
अरे अपने इस जीवन को ही लें क्या कोई भी मनुष्य या समाज या यम नियम या परम्पराएं साँख्य योग तपस्या कुछ भी करके या अपनी सोच और शुभ चिंता से अथवा आपकी सहायता करके या अपनी खुद की ताकत से आपके जीवन की घड़ी को बढाने या घटाने मैं सच्छम है??? कदापि और  कदाचित नहीं क्योंकि ये तो परम प्रधान पमात्मा परमेश्वर के अतिरिक्त किसी के लिए भी अनहोना है।।। 
फिर हम क्यों अपनी मूर्खताओं को प्राथमिकता दें,
 हम क्यों उनका भय खाएं जो हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते सिवाय इस शरीर का नाश करने के जिसका नाश कभी न कभी तो होना ही है क्योंकि कोई भी मनुष्य सदा काल के लिए इस नाशवान शरीर में रह ही नहीं सकता यही सम्पूर्ण सत्य है।।।मनुष्य या समाज अपने क्रोध में आकर इस शरीर को समय के पहिले समाप्त कर सकता है जिसे हत्या कहते हैं जिसका की दंड अति भयानक होता है हमारी सोच से भी परे।।।
हम क्यों न उस एक के भय में होकर जियें जो न केवल भौतिक रीति से हमारे जीवन को तो समाप्त कर सकने में सकच्छम है ही वरन अनन्त काल तक के लिए हमें नरक की असहनीय वेदना अर्थात अनंन्त म्रत्यु दंड देने में भी सकच्छम है ,क्योंकि वो सृजनहार परमेश्वर है वो सबमें सब कुछ कर सकता है उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं हैं।।।
उसका प्रेम जितना महान है कहीं उससे अति भयंकर है उसके कोप का भाजन होना जीविते परमेश्वर के हाथों में पड़ना अति भयंकर होता है (जैसा कि हिदू मत में भी अक्सर कहा जाता है कि उसकी मार जिसमें आवाज भी नहीं होती अति भयंकर होती है)।।
अतिप्रिय बन्धुओं कुलमिलाकर हम जिस समाज में रह रहे हैं उसी में रहते हुए अपने सृजनहार परमेश्वर को प्राथमिकता देना सीखें,प्रारम्भ में हमें कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है,परंतु धीरे धीरे समाज में आप फिर से अपनी जगह बना लेंगे जब समाज आपको भली भांति समझने लगेगा परंतु समाज के लिए परमेश्वर से पंगा ना ही लें तो बेहतर होगा आपके अपने एक ही बार प्राप्त होने वाले इस बहुमूल्य जीवन के लिए ।।।
इसीलिए पवित्र शास्त्र बाइबिल में संत पौलुस कहते हैं कि , मैं परमेश्वर के विरुद्ध उठने वाली प्रत्येक भावनाओं को अपने पैरों तले कुचल डालता हूँ
यही प्रत्येक विश्वासियों का प्रथम कर्तव्य कर्म होना चाहिए ,बेहतर होगा कि हम जीवित सच्चे परमेश्वर को अपनी बेतुकी झूटी मानवीय भावनाओं से तौलने या मापने की भयंकर भूल ना करें, क्योंकि बाइबिल हमें सिखाता है कि भावना में बहकर हमारे सर्वांग दहन बलि करने से भी उसकी आज्ञाओं को मानना ही सर्वोपरि होता है ,यही पवित्र शास्त्र बाइबिल हमें चेतावनी के साथ सिखाता है।।।

प्रिय जनों प्रभु येशू मसीह का द्वितीय आगमन अति निकट है ,हमें पवित्रता के साथ उसके आगमन की बाट जोहना चाहिये ताकि हम अनन्त काल तक उसी के संग रह सकें।
इन वचनों के द्वारा परमेश्वर आपको बहुतायक की आशीष दें।।।आमीन फिर आमीन।।।

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